पूरक बनें स्त्री-पुरुष विरोधी नहीं

मेरी बात
 
 
8 मार्च को हमने विश्व महिला दिवस मनाया इस बार का थीम रखा गया बी बोल्ड फॉर चेंजयानी बदलाव के लिए बहादूर बने। ये देख कर, सुनकर अच्छा लगता है। वाह, कितना अच्छा काम हो रहा है लेकिन सोचने वाली बात यह है कि बाकी दिन क्या होता है? क्या, जिस बदलाव की बात हम करते है या पूरी दुनिया करती है, क्या वह हो रहा है? अब कुछ लोग कहेगे कि बदलाव एक दिन में नहीं आता। सही बात है, मैं भी मानता हूं बदलाव एक दिन में नहीं आता। यह एक सतत और लम्बी प्रक्रिया हैं। पर बात यह है कि हम किस बदलाव की बात कर रहे है? हम समाज में महिलाओं किस स्थान पर देखना चाहते हैं? बदलाव या बराबरी के मायने क्या हैं?  क्या हम यह जानते है या सिर्फ एक रटीरटाई बात को बरसों से दोहराए जा रहे है- महिलाओं को सम्मान मिलना चाहिए, सरकार में और समाज में महिलाओ की उचित भागीदारी होनी चाहिए। क्या हम वह भागीदारी उनको दे रहे है या हमने सच में वो हिस्सेदारी उनको देने की कोशिश की है? अगर की है तो क्या कारण है कि महिला आरक्षण बिल आज तक संसद में पारित नहीं हो पाया है। 1996 में इसे पहली बार संसद के पटल पर रखा था लेकिन अब तक किसी न किसी कारण से यह पास नहीं हो पाया है। वैसे अगर यह पास हो जाता है तो कहीं इसका वही हाल न हो जो ग्राम पंचायत में चुनी हुई महिला प्रधान का होता। कागजो में तो प्रधान महिला होती हो लेकिन असल में प्रधानी उसका पति कर रहा होता है।
 
 
दुनिया के किसी और हिस्से की बात मैं नहीं कहना चाहता लेकिन अगर बात मैं भारत की करुं तो बराबरी के नाम पर हम आज महिलाओं को दिखावटी वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं समझते । आप विज्ञापन ही देख लिजिए। हर विज्ञापन में महिला की भूमिका किसी दिखावटी वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं होती चाहे सेविंग क्रिम की एड़ हो या बनियान की, महिलाओ को किस तरह से प्रदर्शित किया जाता है सब जानते हैं। अगर हम प्राचीन समय की बात करे तो कैकेयी से लेकर रानी लक्ष्मीबाई तक, सभी महिलाए किसी न किसी विशेष कला में प्रवीण थी।  समाज  हो या राजनीति वह अपना एक विशेष स्थान रखती थी। लेकिन पश्चिम की नकल करते-करते आज हम स्त्री को बराबरी का हक देने के लिए भी उसी पश्चिम की नकल कर रहे है जहां खुद स्त्रियों को अधिकार 20वीं शताब्दी में मिलें। अमेरिका जिसे दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र माना जाता है, वहां भी अभी तक किसी महिला राष्ट्रपति को नहीं चुना जा सका। जबकि भारत में इंदिरा गांधी कई बार प्रधानमंत्री बन चुकी थी। इसलिए महिलाओं को हक और अधिकारों के मामले में हमें किसी की नकल करने के बजाए भारतीय संस्कृति के दायरे में चलना चाहिए। मैं यह नहीं कहता कि महिलाएं कुछ न करे बल्कि मैं यह कह रहा हूं कि महिलाएं चाहे तो क्या नहीं कर सकती। वह हर काम कर सकती है जो एक आदमी कर सकता है लेकिन जो एक आदमी नहीं कर सकता, वह काम वह सबसे अच्छा कर सकती है। इसलिए आदमी औरत बराबरी के नाम पर दो खेमों में बाटने के बजाए एक दूसरे का पूरक बनाना चाहिए जो भारतीय संस्कृति है। अगर महिला कुछ करना चाहती है तो उसे करना चाहिए उसे कोई रोके नहीं लेकिन अगर वह काम नहीं करती और हाउस वाइफ है, तो इसका मतलब वह, वह काम करती है जो दूनिया में सबसे अधिक मुश्किल है, एक मकान को घर बनाना। यह किसी वैज्ञानिक, इंजीनियर, आर्केटेक्ट आदि से ज्यादा मुश्किल काम हैं।  जो एक आदमी चाहे तो नहीं कर सकता। उसके अंदर वह सहनशीलता सबकी देखभाल व प्रबंधन नहीं है जो एक स्त्री को सहज ही आता है। हमने कभी न कभी यह जरुर सुना होगा कि घर को घर स्त्री ही बनाती है। यह पुर्णत: सत्य है। स्त्री-पुरूष एक दूसरे के पूरक है जो एक दूसरे की कमियों को पूरा करते है। खामियों को दुरुस्त करते है। शायद भगवान शंकर ने यही सोचकर अर्धनारीश्वर का रूप धरा था ताकि सभी को स्त्री-पुरुष की बराबरी का संदेश दे सके। लेकिन आज बराबरी के नाम पर समाज को स्त्री-पुरूष दो खेमों में बांट दिया है। बराबरी का मतलब सिर्फ एक ही अर्थ लिया जाता है आज के दौर में, पुरूष जो कुछ कर सकता है और करता है वहीं सब अगर स्त्री करें तभी समानता कही जा सकती है। यह बराबरी का अधिकार नहीं है यह तो कोरी नकल का अधिकार है। दोनों (स्त्री-परुष) के अपने गुण है, अपनी सीमाएं है लेकिन आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में हम सिर्फ इन्हें एक-दुसरे के खिलाफ खड़ा करते दिखाई देते है और कुछ नहीं।
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