विचार डेस्कः हाल ही में संजय लीला भंसाली को जयपुर में फिल्म रानी पद्मावती की शुटिंग के दौरान राजपूत करणी सेना के रोष का सामना करना पड़ा। करणी सेना ने फिल्म के सेट पर जाकर तोड़फोड़ की व संजय लीला के साथ बदसलूकी की। करणी सेना का आरोप है कि इसमें रानी पद्मावती को खिलजी के साथ प्रेम क्रीड़ा करते दिखाया है,जो हमारे पुरखों का अपमान हैं। वहीं भंसाली ने कहा कि वह केवल खिलजी के सपने में रानी पद्मावती को, खिलजी के साथ प्रेम क्रीड़ा करते हुए दिखा रहे थे। इसी बीच ये घटना हुई।
बॉलीवुड़ के एक बड़े तबके का इस घटना पर गुस्सा फूटा। लगभग हर कलाकार ने इस घटना को निंदनीय बताया। सुशांत सिंह राजपूत ने घटना के प्रति अपना विरोध जताने के लिए ट्विटर अकाउंट पर अपना सरनेम तक हटा दिया, हालांकि एक दिन बाद फिर लगा लिया। कुछ कलाकारों ने बड़ी ही बेबाकी से अपनी राय रखी। बेबाकी से अपनी राय रखना बड़ी ही अच्छी बात है, लेकिन जब ऐसे ही विवाद दुसरे समुदाय विशेष के होते हैं तो सांप सूंघ जाता है। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण है, 2013 में कमल हसन द्वारा निर्देशित फिल्म विश्वरूपम पर जब बवाल उठा था तो फिल्मी बिरादरी से, एक भी अभिनेता या अभिनेत्री ने उनके पक्ष में अपनी आवाज बुलंद नहीं की थी। मुस्तफा फिल्म का नाम बदलकर गुलाम–ए–मुस्तफा करना पड़ा। तब किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप, प्रियंका चोपड़ा या हिन्दी सिनेमा के मशहूर गीतकार जावेद अख्तर साहब हो, भंसाली प्रकरण में खुलकर और बेझिझक अपनी राय रखी। मैं इस बात का स्वागत करता हूं। ये लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, लेकिन सवाल तब खड़ा होता है– जब यह राय समय, समुदाय या वर्ग विशेष को देखकर दी जाए। यही सब समस्याओं की जड़ है। गलत बात का विरोध होना चाहिए और सभी को करना भी चाहिए। मैं भंसाली के साथ हुई बदसलूकी को सही नहीं ठहराता। मैं मानता हूं, यह अनुचित था लेकिन क्या इस देश में शान्तिपूर्ण प्रदर्शन की तरफ किसी का ध्यान जाता हैं। जब तक आप तोड़–फोड़ न करे आप की बात शासन–प्रशासन तक जाती ही नहीं है। उनकी बात ही छोड़ियें, क्या मीडियां कवर करता है– जी नहीं, वह भी मसाला ढूंढ़ते हैं। जब तक करणी सेना शान्तिपूर्ण तरीके से बात कर रही थी तो किसी ने नहीं सुनी, हिंसा होते ही बच्चे–बच्चे को पता चल गया कि रानी पद्मावती कौन हैं? करणी सेना ने क्या किया और क्यों किया? जब संजय लीला भंसाली को इस बात की खबर थी, कि राजपूत समाज में फिल्म को लेकर संशय है तो क्या उन्होंने उसे दूर करने का प्रयास किया? नहीं किया, उसे बढ़ने दिया। शायद ये भी पब्लिसिटी का नया पैंतरा हो क्योंकि जो भी फिल्म विवाद में रहती है, वह सफलता के नए कीर्तिमान बनाती है।
आइए जानते हैं कुछ जाने–माने व्यक्तियों ने क्या कहा–
‘श्री राजपूत करणी सेना’ के कार्य पर अनुराग कश्यप जी को अपने राजपूत होने पर शर्म आ रही है। उन्हें हिन्दू उग्रवादी लग रहे हैं। जावेद अख्तर साहेब की नजरों में रानी पद्मावती एक काल्पनिक पात्र है जो मलिक मोहम्मद जायसी ने अकबर के कालखंड में लिखा था, जो पहला हिन्दी उपन्यास था। आलिया भट्ट ने लिखा है कि “पद्मावती के सेट पर जो हुआ वह शर्मनाक है। रचनात्मक स्वतंत्रता और सिनेमाई लाइसेंस जैसी भी चीज होती है। कलाकार (या कोई भी) गुंडों की दया पर निर्भर नहीं हो सकता।” ऋतिक रोशन जी को गुस्सा आ रहा है, करन जौहर साहब इंडसट्री के लोगों को एक जुट हो जाने की अपील कर रहे हैं। एकता हमारे देश के लिए बहुत जरुरी है, इसलिए एकजुट होना चाहिए, हालांकि दिखाई कब–कब जाए, इस पर सवाल हो सकता है।
एक प्रश्न उन्हीं प्रश्न करने वालों से, खासकर बॉलीवुड से कि वह समय, वर्ग, धर्म का रंग देख कर अपनी प्रतिक्रिया न दें। वह रचना की दुनिया से आते हैं, इसलिए उनके पास ज्यादा जिम्मेदारी हैं। एक जिम्मेदारी तो यहीं है कि वह हमारा मनोरंजन करे परन्तु मनोंरंजन के नाम पर ऐतिहासिक पात्रों के साथ छेड़खानी न करें। इस गौरवशाली इतिहास को बनाने के लिए कुछ ने अपने प्राणों का बलिदान किया है तो कुछ ने अपने सुखों का, कुछ (पन्नाधाय) ने अपनी राष्ट्रभक्ति के लिए अपने पुत्र तक को न्योछावर कर दिया और आप चंद रुपयों की खातिर रचना के नाम पर तो कभी अभिव्यक्ति के नाम पर इतिहास को तोड़–मरोड़ कर पेश करते हो। आज जब बच्चे से पूछा जाए कि अकबर की पत्नी का नाम क्या है– ज्यादातर का जवाब आता है– जोधा, जो कि गलत है, सही नाम हैं सलीमा सुल्तान बेगम(1561-1605) व मरियम–उज–जमानी(1562-1605) हालांकि अकबर की और भी पत्नियां थी। किसी को भी इतिहास के साथ खेलने का हक नहीं दिया जा सकता। अगर फिल्म बनानी ही है तो ऐतिहासिक पात्रों के नाम का सहारा न लिया जाए। कुछ लोग रानी पद्मावती को ऐतिहासिक पात्र ही नहीं मानते हैं। जो नहीं मानते वह न माने लेकिन जो मानते है उनकी भावनाओं का भी ध्यान रखा जाए। वैसे समय ही बताएगा की जो लोग आज बेबाकी से राय ऱख रहे हैं वह आने वाले समय में सिर्फ इसलिए न बोले क्योंकि उस मुद्दे की जड़ का रंग कुछ ओर हो। (लेखक के निजी विचार)