विचार डेस्कः पदमावत् फिल्म को सीबीएफसी ने सर्टिफिकेट दे दिया। फिल्म रिलीज की तारीख भी घोषित हो गई। लेकिन राजपूत समाज की आपत्तियां अभी भी बरकरार हैं। फिल्म अपनी शुरुआत से ही विवादों में घिरी है। करीब डेढ़ साल पहले इस फिल्म के निर्माता संजय लीला भंसाली के साथ हुई मारपीट के बाद यह विवाद सुर्खियों में आया था। तभी से फिल्म का विरोध कर रही करणी सेना रिलीज से पहले इसे दिखाने की मांग कर रही है। ताकि रानी पदमावती की छवि को लेकर किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ हुई हो तो अपनी आपत्ति दर्ज कराई जा सकें। फिल्म दिखाने का लिखित में आशवासन भंसाली ने करणी सेना को दिया था। फिल्म पूरी होने पर फिल्म रिलीज की तारिख एक दिसंबर तय कर दी गई। फिल्म को अभी तक सीबीएफसी के पास नहीं भेजा गया था। अगर फिल्म रिलीज की तय प्रक्रियाओं को अपनाया जाता है तो भी फिल्म एक दिसंबर को रिलीज नहीं हो सकती थी। क्योंकि सीबीएफसी की वेबसाइट के अनुसार एक फिल्म की रिलीज के लिए कम से कम 68 दिन का समय लगता है। जैसा की जाहिर था फिल्म एक दिसंबर को रिलीज नहीं हुई। इसका सारा ठीकरा गुजरात चुनाव और करणी सेना पर फोड़ दिया गया। इसी बीच करणी सेना के कुछ अमान्य लोग और अन्य राजपूत संगठनों के लोगों की अभद्र टिप्पणियों ने मामलें को उलट कर रख दिया। भंसाली और दीपिका पादुकोण के लिए अपशब्द बोले गए जो उचित नहीं थे
भंसाली ने फिल्म को सीबीएफसी को दिखाने से पहले देश के कुछ चुनिंदा पत्रकारों को दिखाई। यह फिल्म के पक्ष में माहौल बनाने का एक बड़ा जरिया था।
इसी दौरान बुद्धिजीवी बिग्रेड़ ने रानी पद्मवती के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर दिए। उन्हें एक कोरी कल्पना कहना शुरू कर दिया और इसे सूफी कवि मुहम्मद जायसी की 1540 में लिखी गई सिर्फ एक काव्य रचना कहा।यहां राजपूत समाज की मान्यताओं का माखौल उड़ाया गया। उनकी आस्था विश्वास की खिल्ली उडाई गई।
लेकिन आपको बता दूं कि मीरा शोध संस्थान से जुड़े चित्तौड़ गढ़ के प्रो. सत्यनारण समदानी बताते है कि मलिक मुम्मद जायसी सूफी विचारधारा के थे, जो अजमेर दरगाह से आते थे। इसी दौरान उन्होंने कवि बैन की कथा को सुना जिसमें पदमावती का जिक्र था। स्पष्ट है जायसी ने कवि हेतमदान की ‘गौरा-बादल’ कविता से कुछ अंश अपनी काव्य रचना(पदमावत्) में सम्मिलित किए थे।
प्रो. समदानी कहते है कि ‘छिताई चरित’ की रचना ग्वालियर के कवि नारायणदास ने जायसी के पद्मवत से 14 साल पहले की थी। हस्तलिखित इस ग्रंथ का संपादन ग्वालियर के हरिहरनाथ द्विवेदी ने किया था। लिपियों के विद्वान अगरचंद नाहटा ने भी इसका रचनाकाल 1540 से पहले का माना है।
विवाद को बढ़ता देख फिल्म पर राय देने के लिए सीबीएफसी के अध्यक्ष प्रसून जोशी ने एक सलाहकार समिति बनाई। सलाहकार समिति में जयपुर विश्वविद्याल के दो इतिहासकार चंद्रमणी सिंह और प्रोफेसर केके सिंह और रानी पद्वाती के परिवार की 76वी पीढ़ी के राजा अरविंद सिंह मेवाड़ को शामिल किया गया। इन्होंने भी इस फिल्म पर आपत्ति दर्ज कराई।
देश के कुछ् राज्यों ने विरोध को देखते हुए अपने यहां फिल्म की रिलीज पर रोक लगा दी। लेकिन देश की सवोच्च अदालत ने सिर्फ दो दिन के भीतर इस केस की सुनवाई कर राज्यों से रोक हटाने को कहा। वैसे घोटालों में इनके फैसले जल्दी नहीं आते। आदमी मर जाता है लेकिन केस जारी रहता है।
अगर एक घटना को छोड़ दें तो ड़ेढ साल से जारी राजपूत समाज के शांतिपूर्ण आंदोलन की सरहाना करनी चाहिए क्योंकि कोई गाड़ी नहीं जलाई गई किसी सरकारी संपत्ति को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया। लेकिन लोकतांत्रिक तरीके से जारी इस आंदोलन को सरकार और अदालत गंभीरता से नहीं ले रही। क्योंकि इस देश में जिस भाषा को सरकार समझती है उस भाषा का इस्तेमाल अभी तक नहीं किया गया। ज्यों ज्यों रिलीज की तारीक नजदीक आ रही है। किसी बड़ी घटना होने से इन्कार नहीं किया जा सकता।