विचार डेस्कः भारत में इन दिनों फॉग और किसान आंदोलन दोनों चल रहे हैं। खास बात यह है कि इसमें खालिस्तानियों, मोदी विरोधियों, वामपंथियों और विपक्ष का तड़का लग चुका है। तेज आंच पर पक रहे इस आंदोलन को ईंधन पाकिस्तान और कनाड़ा से खूब मिल रहा है। मजे की बात ये कि इस बात को मानते हुए भी किसान नेता मानने के लिए तैयार नहीं है। उनका कहना है कि हमें बदनाम करने के लिए खालिस्तानी कहा जा रहै है। जबकि कंसोर्टियम ऑफ इंडियन फॉर्मर्स एसोसिएशन के वकील ने कोर्ट में ये माना कि प्रतिबंधित संगठन सिख फॉर जस्टिस विरोध प्रदर्शन में शामिल हैं।
विदेशों में बैठी भारत विरोधी ताकतों के लिए किसान आंदोलन अब किसी मैटिनी शॉ से कम नहीं रह गया है। वे अपनी-अपनी कुर्सी पर बैठे पॉप कॉर्न खाते हुए अब कमेंट्री भी दे रहे हैं। ऐसे ही एक कमेंटेटर है पाक के विज्ञान व तकनीक मंत्री चौधरी फवाद हुसैन। उन्होंने ट्वीट कर कहा, ”भारत में जो हो रहा है उससे विश्वभर में पंजाबी दुखी हैं। महाराजा रणजीत सिंह के निधन के बाद से पंजाबी मुश्किल में हैं। अजादी के लिए पंजाबियों ने अपने खुन से कीमत चुकाई है। पंजाबी अपनी ही मुर्खता से पीड़ित है।”
खालिस्तानियों का प्रमुख केंद्र बन चुका है कनाडा। वहीं के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने भी किसान आंदोलन में पकती खालिस्तानी खिचड़ी को ईंधन देने के लिए एमएसपी के समर्थन में दो बार बयान दे चुके हैं। लेकिन यही कनाडा भारत द्वारा किसानों को दी जा रही सब्सिडी का प्रमुख विरोधी रहा है।
पाकिस्तान के टुकड़ो पर पलने वाले खालिस्तानी इन दिनों किसान आंदोलन में सक्रीय भूमिका निभा रहे हैं। कनाडा और सीमा पार बैठे ये खालिस्तानी सिखो पर पाक और अफगानिस्तान में हो रहे हत्याचार पर चुप्पी साध लेते हैं। लेकिन भारत में बात का बतंगड़ बना देते हैं। इन खालिस्तानियों से पूछा जाना चाहिए जिस पाकिस्तान के तुम तलवे चाट रहे हो। वही, पाकिस्तान सिखो के सबसे पवित्र धार्मिक स्थल स्वर्ण मंदिर को दो बार गिराने वाले अहमद शाह अब्दाली को राष्ट्रनायक मानता है। इसी पाक के राष्ट्रनायक ने 5 फरवरी, 1762 को सिखो को गाजर-मूली की तरह काट दिया था। इस क्रूर शासक ने महिलाओं और बच्चों को भी नहीं छोड़ा। पवित्र अमृत सरोवर को गायो को काटकर भर दिया था। पंजाब के इतिहास में इस घटना को वड्डा घल्लुघारा के नाम से जाना जाता है।
पाक ने गत वर्ष नवंबर में सिखो के सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल करतारपुर साहिब गुरुद्वारे का प्रबंधन छीन कर गैर-सिख संस्था को सौंप दिया। अब तक इसका प्रबंधन पाकिस्तान सिख गुरुद्वारा प्रबंधक (PSGPC) कमेटी के पास था। लेकिन सिखो के पैरोकार बननें वाले इन खालिस्तानियों ने चुप्पी साधे रखी। लेकिन ये भारत से सिखो की जड़े काटने में लगे रहते हैं। कनाडा में ये बहुत हद तक सफल हो चुके हैं। फुट डालों की राज करो की नीति पर चलने वाले इन अंग्रजों ने सिखो को हिंदुओं से दूर करने के लिए एक ईसाई पादरी सर जॉन अर्थर मैकालिफे को सिखो का इतिहास लिखने का जिम्मा सौंपा और एक सुनियोजित तरीके से यह भ्रम फैलाया कि सिख दर्शन इस्लाम और ईसाइयत के अधिक करीब है न कि हिंदू धर्म के। अंग्रेजों के विरुद्ध हुई 1857 की क्रांति का आकलन के आधार पर उन्होंने ऐसा किया था। अंग्रेजो की योजना थी कि भविष्य में अगर हिंदुओं ने उनके खिलाफ अगर विद्रोह किया तो सिख और मुस्लिम दस्तों का इस्तेमाल विद्रोह को दबाने के लिए किया जा सके। जबकि सिखो और मुस्लिमों के विद्रोह को वे खुद आसानी से दबा सकते हैं क्योंकि संख्यातमक दृर्षि से वे अल्पसंख्यक थे। लेकिन सिखो की आंख भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के वक्त खुली, जब हिंदुओ के साथ-साथ सिखो का नरसंहार किया गया। इस जनसंहार का जिक्र वर्ष 1950 में खुद शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने अपनी बुक ‘ मुस्लिम लीग अटैक ऑन सिख्स एंड हिंदूज इन पंजाब 1947′ में कर चुका है।
भारत में खालिस्तान का समर्थन करने वाले इनके चेलों से पूछा चाहिए कि क्या ये पाकिस्तान के हिस्से वाला खालिस्तान लेने के लिये तैयार हैं। अगर हां, तो पहले अपने मालिक (पाकिस्तान) से ही खालिस्तान का हिस्सा लें। अगर नहीं, तो भारत में आग लगाना बंद करें।