व्यंग्य डेस्कः बरसात की खुशखबर पूरी तरह सुन भी नहीं पाए थे कि कासगंज में 75 परिवारों के जिन्दा जलने की खबर ने आंख के आंसू सोख लिए। बेमौसम बरसात की तरह तुम फैक्ट्री में धुंआ-धुंआ हो गए? तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आई कि यह मौसम जलने का नहीं है। इस भारी गर्मी में भला कौन हाथ सेकने आएगा? ऐ सी से बाहर तो निकला नहीं जा रहा है। सहानुभूति के मगरमच्छ चुनाव के समय ही किसी के मरने पर पानी से बाहर निकलते हैं। यह समय तो उनका मछली मारने का है। तुम्हारी खबर देने से टी आर पी बढ़ने की सम्भावना कम है। अभी तो कानपुर दंगे से टीआरपी लबरेज चल रही है। दंगे में मरे होते तो अच्छा होता। दोनों हाथों में झंडे और लडडू लेकर दौड़े चले आते और खून के आंसू पोंछने के लिए तीन-चार दमकल साथ में लाते। उनके आंसू तभी निकलते हैं, जब सत्ता हाथ से निकलती है।
वैसे जिन्दा जलने का यह समय सही है। फालतू नेताओं की सहानुभूति और हमदर्दी से दूर। जिन्दा जलने की जो हिम्मत रखता है, भला उसे टुच्चों की हमदर्दी की क्या जरूरत? इस प्रकार जलने से तुम्हारा धर्म/मजहब महफूज रहता है। मजदूर जिन्दा जले या खदान में दब कर रह जाए। कोई टटपूंजिया पूछने नहीं आता कि उसे जलाया जाए या दफन किया जाए? जो जल गया-सो जल गया, जो दफन हो गया-वो दफन हो गया। पुलिस मौत की जांच अवश्य करेगी। फोरेंसिक टीम आयेगी, लेकिन जांच में मरने के कारणों की जांच होगी। जांच में यह साबित नहीं होगा कि कितना पसीना आग में जल गया। पानी की बोतल छांव में रखी थी या फ्रिज में? पेट की दशा कैसी थी? पसलियों से कितने इंच नीचे था। शरीर में आत्मा थी या नहीं? जिन्दा जलने वालों की आत्मा नहीं होती, केवल शरीर होता है। शरीर मरता है। आत्मा अगर जिन्दा होती शरीर न मरता।
अरे ये हिन्दुस्तान है। यहां हर काम मौसम के हिसाब से होता है। चुनाव के मौसम में हमदर्दी और सहानुभूति की फसल उगाई जाती है। सत्ता में आकर काटी जाती है। इस मौसम में सहानुभूति की बाल्टी में हमदर्दी का पानी नहीं होता। अभी तो दंगों का मौसम भी खत्म नहीं हुआ, तुम्हारे लिए सहानुभूति का टोकरा कहां से लाएं? लोगों के पास डूब मरने के लिए चुल्लूभर पानी नहीं है। तुम्हारी लिए बाल्टी लेकर क्या जयपुर रिजार्ट में जाएं? दड़बे में बंद विधायकों को नहलायें या तुम्हें बचाने में पानी बरबाद करें? इतनी सी अकल होती तो इस समय न मरते। राज्य सभा चुनाव में आम नहीं, खास आदमी के वोट की वकत होती है। मौसम देखकर आहुति देना आ गया होता तो जिन्दा न जले होते। चार साल चुनाव या किसी त्योहार का इंतजार कर लिया होता? भैया जिन्दा जलने से नहीं, कमीशन खाकर जिन्दगी चलती है। जिन्दा जलने से अच्छा होता दारू पीकर मर जाते। परिवार सुखी और बच्चों के साथ सहानुभूति होती। ठेका देसी हो या अंग्रेजी जिन्दगी का प्रतीक है। ठेके बाद की मौत बच्चों के लिए सहानुभूति की लाट (लहर) लाती है। घीसा से लेकर माइकल तक फिल्मों की जिन्दगी बन जाते हैं।
बहरहाल अच्छा हुआ तुम झुण्ड में जलकर मरे। एक-दो वोट की तो वैसे भी इज्जत कौन करता है। पूरे मुहल्ले के वोट नई सड़क बनवा देते हैं। एक-दो के मरने पर नेता का कुत्ता भी रोने नहीं आता।
यह अच्छा किया सत्ताधारी के इलाके में जलकर मरे। अखबार ने मुखाग्नि दे दी, अन्यथा किसी कोने में जगह मिल पाती या नहीं कहना मुश्किल था। मुखाग्नि की खबर ने जांच कमेटी का आश्वासन दे दिया। जांच कमेटी की घोषणा मुआवजे से कम नहीं होती? मुआवजे के लिहाज से जिन्दा जलने का समय अच्छा नहीं है। परिवार की दृष्टि से यह समय उत्तम है। बीमारी से मरने से पहले परिवार को अस्पताल मार देता। जो थोड़ी बहुत कसर रह जाती तो श्मशान का खर्चा मार देता। घर में खाने को दाने नहीं, लेकिन रिश्तेदारों को कोलड्रिंक्स पिलानी पड़ती। नलों में मुफ्त पानी नहीं आता, बिसलेरी बणियें की दूकान से लानी पड़ती।
तुम्हारी इस मौत से परिवार जी गया। बस मलाल यही रहा कि कमाने वाले दो हाथ कम हो गए। कम हुए हाथों के लिए, दूसरे हाथों को कर्ज लेने पर मजबूर नहीं होना पड़ा। इस महंगाई में इतनी अच्छी मौत भला किस को नसीब होती है? दो दिन के बाद खबर और सहानुभूति दोनों गायब हो जाएगी।
लेखकः सुनील जैन राही
व्यंग्यकार