बचपन और खेल एक दूसरे के पूरक माने जाते है। बच्चें जहां हो, जैसे हो वह खेल व खेलने का समय ढूंढ ही लेते है। चाहे वह पढ़ाई करते हो या घर की मजबूरी के चलते मजदूरी, वह खेलना नहीं भूलते। लेकिन कुछ बच्चों का बचपना बाल मजदूरी की भेंट चढ़ जाता हैं।
मां-बाप का दुलारा जिसे अभी ढंग से बोलना नहीं आता जो अभी दुनिया की दौड़ को जानता नहीं है। जिसके पैर चलते हुए भी लडखडाते है जो दुनिया की चाल से अभी वाकिफ नहीं हैं, जिसे मां का आंचल ही अपनी सारी दुनिया लगता है। जो पेट में होती कसन को सही परिभाषित नहीं कर सकता कि यह भूख है या कुछ और। घर से बाहर काम के लिए निकलता है। जिसका बचपन इतना मासूम है कि वह यह भी नहीं जानता कि जो काम वह रोजाना करता वह केवल उसकी ही नहीं बल्कि उसके मां-बाप की भी मजबूरी का परिणाम है।
काम पर अनायास ही जब कभी उसका मन खेलने के लिए मचलता, एक भारी आवाज उसे टोक देती। वह मन मसोस कर बैठ जाता लेकिन कुछ देर बाद फिर यही क्रम होता है। धीरे-धीरे उसकी कल्पना, उसकी इच्छा दम तोड़ रही होती है। जिसको वो जानते हुए भी पहचान नहीं पाता। वह यह जानता ही नहीं है कि उसका भविष्य दो जून की रोटी के लिए कुर्बान हो रहा है। बचपना कब खत्म हो गया उसे पता ही नहीं चला। वह पीछे मुडकर देखता है तो उसे नजर आता है कुड़े में भविष्य तलाशता अपना बचपन…