बिहार के ताजा घटनाक्रम ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि आज के दौर की राजनीति में कोई सिद्धान्त नही हैं। आज राजनीति केवल ‘राज’ करने की ‘नीति’ तक सीमित हो गई है। सिद्धान्त का झुनझुना जनता को बहलाने का बस साधन भर है ।
राजनीति के पंडित आज नीतीश के कदम पर सवाल उठा रहे है, वो लोग तब ब्रह्मज्ञान से वंचित हो गए थे, जब बीजेपी के साथ 17 साल पुराने गठबंधन को तोड़, नीतिश कुमार ने चिर प्रतिद्वंद्वी लालू यादव से गलबहियां कर आरजेडी से गठबंधन किया था। तब भी अवसरवादिता थी लेकिन तब राजनीतिक बुद्धिजीवियों को इस कदम में सिद्धांत और सेकुलरइज्म नजर आए थे, लेकिन आज कोरी अवसरवादिता। कुछ ने इस कदम को मास्टर स्ट्रोक बता नीतीश कुमार को राजनीति का माहिर करार दिया। जब हमारी सोच में ही सिद्धांत और सच्चाई नहीं है जहां पर कथनी और करनी में अंतर रखने वाले को ही राजनीति में शातिर खिलाड़ी माना जाता है। तो बाकी बचा ही क्या है?
दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक प्रो. अपूर्वानंद को इस बात का ड़र सता रहा है कहीं अब बहुसंख्यक समाज की राजनीति न होने लग जाए लेकिन वह इस बात पर मौन रहे की आज तक अल्पसंख्यक समुदाय और दलित की राजनीति ने देश और समाज को बांट नई समस्याए पैदा की हैं।
जहां चारा घोटाले में सजा पाए लालू को गद्दावर नेता के रूप में पहचान मिली हुई है जिन्हें सेकुलरइज्म के नाम पर घोटाले करने की छूट है। जहां समाजवाद से ज्यादा परिवारवाद हावी है। कांग्रेस भी इससे अछूती नहीं हैं। फिर सिद्धांत सच्चाई और अन्य बात बेमानी हैं। हम खुले तौर पर यह स्वीकार करना चाहिए आज राजनीति का अर्थ है सत्ता सुख। बाकी सब तो जुमलेबाजी है।