बैंगलोर की घटना ने न केवल समाज के उस सोते तबके को एक बार फिर जगाया है जो लड़की की सुरक्षा के लिए धरने के लिए या कैंड़ल मार्च निकालने के लिए ऐसे मौको की तलाश में रहते है। मामला जितना बड़ा बनता जाता है, उतना ही बड़ा हो-हल्ला मचाना शुरू कर देते है।
और जैसे-जैसे मामला ठंडा पड़ता जाता हैं, इनकी आवाजे भी ठंडी पडने लगती है। बाद में होता क्या है, वहीं ढ़ाक के तीन पात। ये लोग घटना से जितनी सुर्खी बटोरनी होती है बटोर चुके होते है और फिर नई घटना की तलाश में रहते है।
पुलिस और प्रशासन ने जो करना है वह तो करना ही चाहिए लेकिन क्या कभी हमने ये जानने की कोशिश की है कि इतनी शर्मनाक घटना के बावजूद भी इन्हें तनिक भी पछतावा क्यों नहीं होता है? ये कैसी मानसिकता है और ऐसी मानसिकता बनती कैसे है? शायद आधुनिकता के चौला औड़ कर जब बॉलिवुड़ का कोई एक्टर फिल्मों में लडकी को छेड़ता है तो हमारें समाज के वर्ग से ही आने वाले कुछ लोग तालियों की गड़गडाहट से सिनेमा हॉल को भर देते हैं क्योंकि वह काम अक्षय कुमार ने किया । वही द्रश्य देखने वाले कुछ सो कॉल्ड़ जुवेनाइल लोग इसे आधुनिकता का एक नया अध्याय समझ कर शिक्षित होते है और इसी शिक्षा का वह प्रयोग ‘निर्भया’ जैसे हत्याकांड़ को अंजाम देते है।
मुझे याद है कि जब भारत सरकार ने अश्लील फिल्मों पर पाबंदी लगाई थी तो सिने जगत की जानी-मानी हिरोइन ने इस पर अपना खुल कर विरोद्ध जताया था।
ऐसा कहा जाता है कि मन का भी अपना भोजन होता है जैसे हम अपने शरीर को मजबूत बनाने के लिए अच्छा भोजन करते है उसी प्रकार मन मस्तिष्क को भी स्वच्छ और मजबूत बनाने के लिए अच्छा भोजन देना पडेगा अन्य था यह भी बिमार पड़ जाएंगा, विकृत हो जाएंगा। ऐसा विकृत मन ही ऐसी घटनाओं का कारक बनता है।
अगर हमने इस बिमारी का इलाज करना है तो दोषी के साथ-साथ दोष की जड़ को भी खत्म करना होगा।
यहां मैं एक बात और कहना चाहता हूं कि आज का सिनेमा हमें ‘बेफिक्रे’ बना रहा है। बेफिक्रे का मतलब समझे न आप ?