हालही में सुप्रीम कोर्ट ने सिनेमा घर में राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य कर दिया, जो इसे नहीं मानेगा उसके लिए सजा का प्रावाधान भी किया गया हैं। खैर मैं उसकी तकनीकी बारिकीयों में नहीं जाना चाहता। मुद्दा यह हैं कि राजनीतिक गलियारों में और बुद्धिजीवी वर्ग में, अब इसके पक्ष-विपक्ष की बात को लेकर भी बहस तेज हो गई हैं, जो गैर जरुरी है।
हर बात को व्यकितगत आजादी, व्यकितगत स्वतंत्रता से जोड़ना सही नहीं हैं। अगर इस देश का नागरिक ही, देश का सम्मान नहीं करता तो उसे वो भी इस देश द्वारा दिये गए नागरिक अधिकारों के लायक नहीं है। यह हमे समझना पडेगा।
पत्थर, छिनी और हथौड़े की मार झेल कर ही, मुर्ति का आकार ग्रहण करता हैं। इसलिए कानूनी बाध्यता भी जरुरी हैं। भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान वंदना कटारिया, जब फिल्म देखने हरिद्वार स्थित मॉल में गई, तो वहां पर राष्ट्रगान नहीं बजाया गया। जब इस बारे में मॉल अधिकारियों से बात की, तो उन्होंने कहा कि उन्हे अभी इसकी अधिसूचना नहीं मिली। इसके बाद वह फिल्म देखे बिना ही चली गई।
यह तर्क अपने आप में ही हास्यपद हैं। अपने देश के सम्मान करने के लिए भी अब हमें अधिसूचना की जरूरत पड़ेगी। यह घटना अपने आप में ही हमें चेताती हैं कि हम किस देश, राष्ट्र या समाज का निर्माण कर रहे हैं। क्या अपने देश और माता-पिता के सम्मान करने के लिए हमे सर्कुलर चाहिए।