अपनी पहचान की तलाश में निकल पड़ा हूँ,
मंजिले न सही रास्ते तो है,
क्यों रोक रखा था मैंने खुद को, औरो के लिए,
जाने के बाद कौन याद रखता है,
रास्ते के सहारे मंजिले कब तक ढूंढेगे,
जब रास्ते ही मंजिले बन जाए, तो क्या कहने,
कौन चला है किसके पीछे,,
बस एक भीड़ है और हाथ में रस्सी है,
दिमागों ने कब याद रखा दिलो को,
ये एहसास कुछ वक़्त का है,
ख्वाइस रखी है सिर्फ एक पहचान की,
जब जाऊ तो हर आँख में पानी हो,
शबनम ना बन सका तो आँखों का मोती ही सही,
गिरते-गिरते किसी के काम तो आया,
अरमानो की उम्र बहुत छोटी है मेरे,
देखते देखते न बदल जाए, तो कहना,
कशक दिल में बस इतनी सी है,
बहुत सीख के निकला हूँ, बहुत सीख के आउगा।।
Note – इस कविता से जुड़े सर्वाधिकार रवि प्रताप सिंह के पास हैं। बिना उनकी लिखित अनुमति के कविता के किसी भी हिस्से को उद्धृत नहीं किया जा सकता है। इस लेख के किसी भी हिस्से को अनधिकृत तरीके से उद्धृत किये जाने पर क़ानूनी कार्यवायी होगी।