वरना ये मुल्क मेरा, मेरा न रहेगा

कविताएँ



आंखे बंद कर हजारों सपने लिए बैठे हैं,
मेरे दोस्त मेरे लिए गुलदस्ता लिए बैठे हैं,

कुछ शिकायत करते हैं मुल्क से
खुद हजारों खंजर लिए बैठे हैं

अब डर लगता है साहेब देश में
खुद के दामन में कांटे लिए बैठे हैं,

जो सिखाते हैं अमन का पाठ हमें
वो अपने हाथ खून से रंगे बैठे हैं,

सच्चाई कोई माने या ना माने ,
हम अपनी बुजदिली से घर में दुबककर बैठे हैं,

मिट जाओगे एक दिन, निशां भी न रहेगा,
लड़ते हो जिन के लिए तुम, वो भी तुम्हारा न रहेगा,

खबरों को खबर ही रहने दो, मसाला छोड़ दो,
वरना ये मुल्क मेरा, मेरा न रहेगा।।


Note – इस कविता से जुड़े सर्वाधिकार रवि प्रताप सिंह के पास हैं। बिना उनकी लिखित अनुमति के कविता के किसी भी हिस्से को उद्धृत नहीं किया जा सकता है। इस लेख के किसी भी हिस्से को अनधिकृत तरीके से उद्धृत (प्रिंट) किये जाने पर क़ानूनी कार्यवायी होगी।




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